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राजनीति को यहाँ जीवन की ही अनीति न कहा जाए, तो फिर भला और किस शब्द का प्रयोग संभव है?
राजनीति यहाँ अनीति बन पूरे मानव जीवन से खेल रही है. उत्तराखंड-आपदा नाम सुनते ही, पूरे देश का जन-तन्त्र, हर तबके का आदमी सहायता के नाम पर अपनी ओर से हर संभव करने को तैयार है. परंतु मौके को भुनाने की राह देखने वालों ने तो यहाँ भी मानव को नहीं बख्शा.
आपदा, भूख से जूझ रहे लोगों की मदद के लिए भेजे गये खाने के साथ मदद करने वाली राजनैतिक-पार्टी के प्रचार-विग्यापन हैं. चलो, विग्यापन देख कर ही खाना खाने को मिल जाए, तो खैर है. पर वो खाना किसके खाने लायक है, इसे तो वो ही बता सकते हैं, जिन्हें भीगे, सड़े हुए अनाज को खाना कहने पर मजबूर किया जा रहा है.
यहाँ सबसे ज़्यादा गौर करने लायक तथ्य यह है कि अगर कोई आपदा से जूझते भूखों के खाने से भी अपना स्वार्थ तलाश रहा है, तो वो क्यों भला ऐसी खराब खाने की चीज़ें उन मजबूरों के पास भेजेगा? ज़रूर ये किसी दूसरी पार्टी के कार्यकर्ताओं की चाल है, जो खराब हुई चीज़ों को राजनैतिक पार्टी के विग्यापन के साथ जनता के सामने पेश किया जा रहा है.
परंतु एक गौर करने लायक बात और भी है. जिस तथ्य की यहाँ उपर चर्चा की गई है, अगर यही ख़याल पहले से राहत-सामग्री भेजने वाली पार्टी के कार्यकर्ताओं के दिमाग़ मे रहा हो! तब तो केवल इल्ज़ाम लगा कर, वो लोग खराब चीज़ें भेज कर, अपनी छवि भी सुधार लेंगे और लगे हाथ शांति से बैठे दूसरी पार्टी के कार्यकर्ताओं को परेशान भी कर लेंगे.
मतलब बिल्कुल सीधा-सादा है. इल्ज़ामों की राजनीति से जनता को सीधे-सीधे बेवकूफ़ बनाया जा रहा है. और हम कुछ भी नही कर सकते, क्योंकि हमारा काम केवल सरकार को चुनना है. सरकार को समझाना, या फिर उसे सरकार चलाने के सुझाव देना, या सरकार को सही से चलाने के तरीके बताना हमारा काम नहीं.
ऐसी परिस्थितियों में, गणतंत्र-प्रधान हमारे इस देश में, क्या जनता को सीधे सरकार से अपनी कहने, या फिर सरकार को उसका ग़लत बताने का अधिकार नही होना चाहिए?
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