ikshit
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सर्दियों में
अब तो धूप भी छत पर जम जाती है!
कमरे का रोशनदान
इस धूप में नहाने के इंतजार में
जी भर कर खुला रहता है,
पर जब तक पिघलती है
ये धूप आहिस्ता-आहिस्ता
चाँदनी उसे खुद में समेट जाती है.
न वो अपनी दिन की कहानी कह पाती है,
न वो अपनी कल सी रवानी में रह पाती है!
अब सर्दियाँ हैं ऐसी जालिम
हर ग़रीब घर की प्यास
धूप को बस तरसती रह जाती है!
ऐ खुदा!
फूँक दो थोड़ा सा अपनी आज़माइश को…
थोड़ी सी धूप
थोड़ी सी छत पर
थोड़ी ग़रीबी की भी फरमाइश पर… !!!
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