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1947 में स्वतंत्रता मिली. लगा, अब मज़े से स्वतंत्रता का आनंद उठाएँगे. पर उस पर भी संविधान की पाबंदी लगा दी गयी.
हालातों के हिसाब से जो किया गया, बिल्कुल सही था. अँग्रेज़ों की चाकरी से चढ़े आशियाने भारतीयता के लहजे मे ढालने ज़रूरी थे. विकास की दौड़ मे जो बेवजह ही अपनो से मात खा गये, उनका उत्थान बिल्कुल तार्किक था.
मौका देख कर खुले हाथों से चौके मारे गये. इंसान को ज़रूरत से ज़्यादा नही उड़ने देना चाहिए. इस बात की संविधान लिखने वालों को अच्छे से समझ थी. बिल्कुल सोच-समझ कर काम किया गया. संविधान द्वारा स्वतंत्रता की एक परिभाषा भी दे दी गयी. इस परिभाषा में स्वतंत्रता के अधिकार को कई समूहों में बाँट दिया गया. अब सुनने वाले हर किसी को लगता है, हमारे पास इतनी सारी तरह की स्वतंत्रताएँ हैं, तो फिर संविधान से बैर भला किसलिए?
आप स्वतंत्रता के अधिकार के अनुसार अभिव्यक्ति कर सकते हो. आप किसी को कुछ भी भाषण भी दे सकते हो. पर आप की बात किसी को बुरी लगी, और ख़ास कर के तब, जब वो अल्प-संख्यक वर्ग का है, तो फिर तो आप के सारे अधिकार, बिना किसी पड़ताल के सीधे पुलिस के पास केंद्रित हो जाते हैं. आप चाहे जिस अधिकार के तहत सभा कर रहे हो, एक अल्प-संख्यक की आवाज़ पर देखते ही देखते आप की पूरी की पूरी सभा पुलिस – कारागार की शोभा का पात्र बन सकती है.
बात गौर फरमाने लायक है. संविधान की रचना के समय जिन्हे पिछड़ा और अल्प-संख्यक कहा गया, उनको आगे आ कर कदम से कदम मिलने के ढेर भर अवसर प्रदान किए गये. मौका उनके हाथ मे दिया गया और अपेक्षा की गयी की स्वतंत्र भारत के पाँच-छः लंबे दशकों में चौकड़ी भरने के बाद वे विकास की रफ़्तार से जुड़ ही जाएँगे. पर वे पन्नो पर जहाँ थे, वही के वही हैं. और यदि ऐसा है, तो यह ग़लती किसकी है?
किसी की ग़लती को कब तक दूसरों पर थोपा जाए? उन्होने तो मान लिया है, ये आरक्षण उनका अधिकार है. उन्हे समझना होगा, ये अधिकार नही, विशेषाधिकार है… वह भी सीमित समय के लिए. परंतु आज सुनता कौन है? नही सुनो! हमारा क्या जाता है? हम भी तो हैं तो भारतीय ही !
संविधान का ये बड़ा दुर्ग भारत मे भारतीयों के लिए ही तो बना है. संविधान की रीतियाँ चाहे कितनी भी कारगर क्यों न रही हों, चाह रखने वाले भारतीय को तो हमेशा से ही राह मिलती ही आई है. आप के ढेर भर अधिकारों के हनन के बावजूद आप के पास एक तो सहारा है. देश-व्यापी रुपये की स्वच्छंदता और स्वतंत्रता ऐसी है, जिसका आज तक कोई बाल भी बांका नहीं कर सका.
वस्तुस्थिति यह है, भारत में सदैव से ही संभावनाओं की कभी कोई कमी न रही. एक रास्ता बंद, तो दूसरा आप खुद खोद लीजिए. परंतु जो भी करना है, आप को खुद ही करना पड़ेगा. खुद ही को कर बुलंद इतना कि आप का देश आप को माने. यही सनातन सत्य है इस देश का. आप के भारत मे भ्रमण करने, व्यवसाय करने, कहीं भी रहने, या किसी समुदाय से जुड़ने जैसा आप का कोई भी अधिकार वैसे तो कभी भी निरस्त हो सकता है. परंतु आप यदि रुपये की कड़कड़ाहट को अपने अधिकार- क्षेत्र में रखने मे सक्षम हैं, तो आप अधिकार की सीमितता के हर प्रहार से परे हैं. परंतु कोई भी कदम उठाने से पहले यह अवश्य ध्यान में रखा जाए, लोहा लोहे को काटता है. रुपया रुपये की कीमत जानता है. और यदि सामने की असामी आप से ज़्यादा मालदार है, आप खुद ही सुनिश्चित करें कितनी मोटी गद्दी किस कुर्सी पर ज़्यादा धारदार है!
अब सब तथ्यों के उपरांत, इस तथ्य पर एक प्रश्न अवश्य उठाया जा सकता है, कि जो भी शब्दों मे वर्णित है, वो होगा आख़िर किस प्रकार? उत्तर ये है, भारतीय होने के नाते आप बेहतर जानते हैं ;).
गणतंत्र दिवस की एक नयी संध्या को स्वतंत्र भारतीय का संविधान-तलाशता प्रणाम!
“जय हिंद!! जय संविधान !!”
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