ikshit
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नयनों पर
नित्य
वही छवि छाई
मैं नहीं निकट उनके
कह कर मद्धम से
वह भाव-कटुता
मुझ पर है मुस्कुराई,
विचारों की कथा
बह
बार-बार नयनों से
अधरों तक भर-भर आई.
किया स्वतंत्र
जो स्वयं को
स्नेहाम्रत नेह बंधनों से
पाने को,
शिथिल पड़ते बंधनों की विहवहलता
इस उचाट मन पर
भारी हो आईं,
कुछ रूंधा ये गला
स्मृति की लड़ियाँ
बन भारी
मन आरेखों पर घिर आईं!
मैं स्वयं से ही
प्रश्नित क्यों
प्रश्न पूछती मुझसे
समय-स्थिति है आई.
करूँ प्रश्न ढेर और
मैं स्वयं से
नयनों के नखरों पर
चढ़-चढ़ कर,
स्वयं से
जैसे लड़-लड़ कर
पर कसक बिछोह की
नहीं ला देती
कोई उत्तर
छाया है स्वप्न प्रिय-मिलन का
इन नयनों पर
भरोसे जिनके
जी रहा हूँ जीवन
पाने को पुनः नैन-मिलन के अवसर
भर-भर कर
जी भर कर
बस देखूँगा वो मुखड़ा ही
मैं
उनका बनकर!
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